जलवायु परिवर्तन भारत की अर्थव्यवस्था के लिए एक जटिल चुनौती है

प्रो. (डॉ.) देवेन्द्र विश्वकर्मा एम.ए. अर्थशास्त्र, एम.बी.ए. वित्त, पीएच.डी. एण्ड डी.लिट् अर्थशास्त्र

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भारत दुनिया में मोबाईल फोनों का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। जहां हर वर्ष 1.5 मिलियन टन से अधिक ई-कचरे का निर्माण होता है और ज्यादातर उपभोक्ताओं को अब भी इस बात की जानकारी नहीं है कि उन्हें अपने ई-कचरे का निपटान कैसे करना है। ई-कचरे की री-साइक्लिंग का काम पूरी तरह लगभग अनौपचारिक क्षेत्र पर छोड़ दिया गया है, जिसके पास इसकी बढ़ती मात्रा से निपटने के पर्याप्त तौर तरीके अथवा प्रक्रियाएं नहीं है, जिसके कारण मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिये असहनीय जोखिम उत्पन्न हो गया है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, जलवायु परिवर्तन स्वास्थ्य के सामाजिक और पर्यावरण संबंधी पहलुओं पर बुरा असर डालता है। मसलन साफ हवा, पीने का शुद्ध पानी, खाद्य सुरक्षा और आवास। जलवायु परिवर्तन के कारण साल 2030 से 2050 के दौरान हर साल तकरीबन ढाई लाख अतिरिक्त मौतें होने की आशंका है। ये मौतें कुपोषण, मलेरिया, डायरिया और गर्मी के प्रकोप जैसी बीमारियों से हो सकती हैं। साल 2030 तक स्वास्थ्य पर इस सिलसिले में खर्च 2-4 अरब डाॅलर होने का अनुमान है।

आज के उपभोक्तावादी-युग में, आर्थिक-शक्ति बनने की होड़ में लगा मनुष्य प्रकृति-प्रदत्त सेवाओं का शोषण पृथ्वी की धारणयी-सीमा या सस्टेनेबल लिमिट व क्षमता से बहुत आगे जाकर चला जा रहा है, जिसका अंत बहुत सी प्राकृतिक आपदाओं के बाद, संपूर्ण धरती का विनाश होगा, यह हम सब जानते हैं।

जलवायु परिवर्तन के अंतर्गत बढ़ता तापमान, वर्षा होने की प्रक्रिया में परिवर्तन और विषम मौसम घटनाएं शामिल है। जलवायु परिवर्तन में संबद्ध अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी), संयुक्त राष्ट्र के जलवायु विज्ञान निकाय के वैज्ञानिकों द्वारा पिछले साल अक्टूबर में बुसान, दक्षिण कोरिया से जारी चेतावनी, भारत के लिए पूरी तरह से अप्रत्याशित नहीं है, जिसमें कहा गया था कि ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन आदि वर्तमान दरों पर जारी रहा तो इसके तत्काल और गंभीर परिणाम होंगे।

यदि धरती के तापमान में वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक होती है, तो जलवायु परिवर्तन की चपेट में आने वाले अपेक्षाकृत गरीब देशों में, भारत सबसे अधिक प्रतिकूल रूप से प्रभावित होगा। अब यह पहले से कहीं अधिक स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन के कई प्रतिकूल प्रभाव अपरिहार्य हैं। दक्षिण एशिया, विशेष रूप से भारत एक जोखिम का केन्द्र है, और ग्रह का तापमान बढ़ने के साथ, उसे अनेक और अतिव्यापी खतरों का सामना करना पड़ेगा। तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि पर भी सूखा और बाढ़, लू के प्रकोप परिवास में विकृति और फसल पैदावार में कमी जैसे गहन दुष्प्रभाव सामने आएंगे।

भारत को अपने लोगों के विकास की खाई को बाटने और निरंतर आर्थिक विकास सुनिश्चित करने के लिए, अंतर्राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन और सतत् विकास की अपनी प्रतिबद्धताओं के दायरे से आगे बढ़ना होगा। इसके लिए कोयला, बिजली संयंत्रों के स्थान पर सौर पैनलों और पवन टरबाइनों की स्थापना और जीवाश्म ईंधन से चलने वाले वाहनों से स्थान पर इलेक्ट्रिक वाहनों के इस्तेमाल से भी अधिक कुछ करना होगा।

जलवायु परिवर्तन भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्था के लिए एक जटिल चुनौती है। महत्वपूर्ण विकास घाटे के साथ एक बड़ी विकासशील अर्थव्यवस्था, जिसमें लाखों लोग गरीबी में रहने वाले हों, अपनी अर्थव्यवस्था को कैसे आगे बढ़ाते हैं और अपने कार्बन फुटप्रिंट को सीमित करते हुए विकास को बनाए रखते हैं ताकि अपने लोगों पर जलवायु परिवर्तन के अधिक गंभीर प्रभावों से बचने के लिए तापमान बढ़ने की गति को धीमा कर सकें। सीमित संसाधनों के साथ एक विकासशील देश यह कैसे सुनिश्चित करता है कि वह जलवायु के दबावों वाली दुनियां में अपने लोगों की खुशहाली को खतरे में डाले बिना कैसे उनके विकास का अंतराल दूर कर सकता है और साथ ही भविष्य के अवसरों का लाभ उठाने में सक्षम हैं।

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