7 जुलाई रथ यात्रा पर विशेष भारतीय संस्कृत्ति का मूल
-: महाप्रभु जगन्नाथ रथ यात्रा :-
-: महाप्रभु जगन्नाथ रथ यात्रा :-
युगों से हमारे देश में रथ यात्राओं की समृद्ध परपंरा रही है जो समन्वय और भक्ति का संदेश देती आ रही है। अनादि काल से चली आ रही महाप्रभु जगन्नाथ स्वामी की यह रथ यात्रा विश्व प्रसिद्ध व सबसे महत्वपूर्ण मानी जाती है। जगन्नाथ पुरी में आयोजित रथ यात्रा में देश-विदेश के लाखों श्रद्धालु भक्त उपस्थित होकर महाप्रभु के साक्षात् दर्शन कर अपने आप को धन्य मानते है।
जगन्नाथ रथ-यात्रा हमे प्रेम भक्ति, शान्ति, सदभाव और एकता का पावन संदेश देती आ रही है। और वैसे भी महाप्रभु जगन्नाथ स्वामी स्वयं आनंदमय चेतना के प्रतीक है, इनकी नजर में राजा-प्रजा, पण्डित-पुजारी, अमीर-गरीब, रोगी-निरोगी, शूद्र-ब्राह्मण सभी एक समान है। ये स्वयं आदि देव है, ये साक्षात् परम ब्रह्मम और परमदेव है, ये बड़े ठाकुर है, ऋग्वेद के अनुसार ये अपौरुषेय है, ये ही मूल हैं और ये ही अनन्त है-
अतो यदारू: प्लवते, सन्धु:पारे अपौरूषम्।
जगन्नाथ रथ यात्रा देश की बहुप्रतिक्षित और लोक प्रिय यात्रा मानी जाती है। यह पुरी के साथ ही देश के विभिन्न भागों में आषाढ़ शुक्ल की द्वितीय को प्रारम्भ होकर आषाढ़ शुक्ल की त्रयोदशी तक चलती है।
जगन्नाथ पुरी की रथ यात्रा में प्रतिवर्ष तीन अलग-अलग रथ नये बनाये जाते हैं। जिसमें महाप्रभु जगन्नाथ के रथ का नाम “नन्दिघोष” रहता है। इसे चक्र ध्वज, गरुड़ ध्वज, व कपिध्वज नाम से भी जाना जाता है। रथ के ऊपर त्रिलोक्यमोहिनी नाम से प्रचलित लाल पताका लगी रहती है। इस रथ के सारथी का नाम मातली व रक्षक का नाम नृसिंह रहता है। रथ की ऊँचाई 45 फीट रहती है। इसमे 18 चक्के लगे होते है जो 18 सिद्धियों के प्रतीक माने जाते है। इस रथ को लाल-पीले रंग के वस्त्रों से सुसज्जित किया जाता है। रथ के द्वारणल के रूप में इन्द्र और ब्रम्हा राहते है। रथ को खीचने वाली रस्सी को शंखचूड़ या चूड़ामाणे कहते हैं।
द्वितीय रथ भगवान वल्लभद्र जी का रहता है जिसका नाम “तालध्वज” रहता है। इस रथ के संरक्षक वासुदेव होते है। इसकी ऊँचाई 44 फीट रहती है। इसमे 14 चके लगे रहते है व इसे नीला. हरा लाल रंग के परिधानों से सुसज्जित किया जाता है।
तृतीय रथ देवी सुभद्रा जी का रहता है जिसका नाम “देवदलन” रहता है, इसे दर्मदलन व पद्मध्वज के नाम से भी जाना जाता है। इस रथ की ऊँचाई 43 फीट है। इसमे 14 चके रहते है। इस रथ के सारथी “अर्जुन” व रक्षक “जयदुर्गा” होती है। इसमे लगी पताका का नाम नदविका है। इसे लाल काले रंग के परिधानों से सुसज्जित किया जाता है। इसी रथ पर सुदर्शन जी को भी विराजमान किया जाता है।
रथ निर्माण की हजारों वर्षों की अपनी गौरवशाली परम्परा रही है। वैदिक साहित्य में भी रथों का उल्लेख मिलता है। रथ निर्माण का कार्य वैशाख शुक्ल तृतीया से चन्दन यात्रा के दौरान शुरू किया जाता है जो लगभग 60 दिनों में पूर्ण कर लिया जाता है। रथ निर्माण में “साल” की लकड़ी का इस्तेमाल किया जाता है जो उड़ीसा के दशपल्ला नामक जंगल से लायी जाती है वंश परम्परा के अनुसार महाप्रभु के रथ का निर्माण पूर्ण विधि-विधान से शास्त्र सम्मत बढ़ई के द्वारा किया जाता है। जिन्हें परिश्रम के रूप में उचित राशि दी जाती है।
कठोपनिषद में रथ के विषय में कहा गया है –
आत्मान रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धि तु सारिथं विद्धि मन: प्रगहमेव च।
रथ को देह (शरीर) का प्रतीक माना है जिसे आत्मा रूपी सारथी अर्थात रथ का चालक अपनी बुद्धि और दूरदर्शिता से गति देता है, मंजिल आने या रूकावटें, मुसीबतें देखकर रथ को उचित दिशा में मोड़ा जा सके, रोका जा सके अथवा तेज गति से चलाया जा सके। मनुष्य की चपल चंचल इंद्रियों को अश्व और मस्तिष्क की लगाम या नियंत्रक कहा गया है। यहां रथ प्रतीकात्मक होने पर भी रामायण, महाभारत व भगवत गीता में युद्ध प्रसंग में रथयान के रूप में व्यवहत हुआ। वेद में भी भगवान विष्णु और सूर्यदेव के रथ का वर्णन मिलता है। यहां यह उल्लेखित है कि भगवान भक्त के वस में होने के कारण उचित समय पर स्वयं रथ यात्रा के माध्यम से भक्तों के साथ विचरण करने निकल पड़ते हैं।
रथ यात्रा के दौरान भगवान जगन्नाथ स्वामी गुण्डिचा मंदिर में 9 दिनों के विश्राम के पश्चात् दशमी तिथि के दिन वापिस अपने पुरीधाम (श्री मंदिर) वापिस लौट आते हैं। वहीं हमारे संस्कारधानी में निकलने वाली रथ यात्रा में 15 दिनों के पश्चात् आषाढ़ शुक्ल की गुरूपूर्णिमा को वापिस अपने धाम (मंदिर) आ जाते हैं जिसे कुछ लोग मौसी या ससुराल से वापिस आने का वर्णन करते हैं।