पेंशन का टेंशन फिर चर्चा में …..
सरकार ने करोड़ों सेवानिवृत्त लोगों के बुढ़ापे का एकमात्र सहारा पेंशन को नई यूनीफाइड पेंशन स्कीम (यूपीएस) लाकर फिर चर्चा में ला दिया है।
पेंशन का टेंशन फिर चर्चा में …..
सरकार ने करोड़ों सेवानिवृत्त लोगों के बुढ़ापे का एकमात्र सहारा पेंशन को नई यूनीफाइड पेंशन स्कीम (यूपीएस) लाकर फिर चर्चा में ला दिया है। सरकार इसे ओल्ड पेंशन स्कीम (ओपीएस) और न्यू पेंशन स्कीम (एनपीएस) के बीच का कर्मचारी हितैषी मार्ग बता कर पेश कर रही है तो विपक्ष यूटर्न पेंशन स्कीम कहकर इसका मजाक उड़ा रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव में पेंशन प्रचार के प्रमुख बिंदुओं में से एक थी और संभवतः इसने चुनाव परिणाम काफी हद तक प्रभावित कर भाजपा को स्पष्ट बहुमत पाने से रोक दिया था। इसीलिए चर्चा है की सरकार ने यह योजना महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और जम्मू कश्मीर में चुनावी फायदे के लिए लागू की है। बहरहाल यह नहीं भूलना चाहिए कि ओपीएस लागू करने के बावजूद कांग्रेस छत्तीसगढ़ और राजस्थान पिछला विधानसभा चुनाव बुरी तरह हार चुकी है।
2004 के पूर्व अंतिम आहरित वेतन के आधे के बराबर पेंशन की गारंटी वाली ओपीएस में कर्मचारी अंशदान जरूरी नहीं था। संपूर्ण व्यय सरकारी कंधों पर था। निरंतर बढ़ते पेंशन व्यय को संतुलित करने के लिए 2004 से लागू एनपीएस में कर्मचारियों और सरकार का 10 प्रतिशत समान अंशदान अनिवार्य कर दिया गया। 2019 में सरकारी अंशदान मूल वेतन और डीए का 14 प्रतिशत कर दिया गया.
यह राशि भविष्य के पेंशन भुगतान के लिए शेयर मार्केट समेत अन्य वित्तीय संसाधनों में लगाने का प्रावधान था। कर्मचारियों को विभिन्न वित्तीय विकल्पों के बीच चुनने का अधिकार तो था मगर इसमें इन वित्तीय विकल्पों का सीमित ज्ञान बाधक था। यह पेंशन मार्केट के उतार-चढ़ाव के आधार पर परिवर्तनीय थी। इसमें शामिल कर्मचारी हाल के सालों में रिटायर होने लगे हैं और शिकायत है कि उनकी पेंशन कभी 100 तो कभी 120 रुपये प्रतिमाह होती है, ऐसे में वे ज़िंदगी कैसे बिताएं। बनारस के एक कॉलेज के प्रिंसिपल क़रीब डेढ़ लाख की सैलरी थे पर पेंशन 4,044 बनी। यही वजह है कि इसे रद्द कर ओल्ड पेंशन स्कीम को बहाल करने की मांग जोरों पर थी।
सरकार ने अपने चिर परिचित अंदाज में नई पेंशन योजना पर भी कर्मचारी संगठनों से विमर्श जरूरी नहीं समझा। नयी योजना में रिटायरमेंट के बाद कर्मचारी कुल संयोजित राशि का 60 प्रतिशत निकाल सकते हैं। बाकी 40 प्रतिशत सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों, वित्तीय संस्थाओं और निजी कंपनियों द्वारा प्रमोट किए गए पेंशन फ़ंड मैनेजर्स की विभिन्न स्कीमों में लगाना अनिवार्य कर दिया गया है। ग्रैच्युटी के अलावा नौकरी छोड़ने पर हर छह महीने की सेवा पर मूल वेतन और महंगाई भत्ते का दसवें हिस्से के बराबर एकमुश्त रक़म देने का प्रावधान भी है। नई योजना के कई प्रावधानों पर ओपीएस लागू कराने की मांग कर रहे कर्मचारी संगठन नाराज हैं। कर्मचारी के अपने अंशदान को निकालने को लेकर प्रावधान स्पष्ट नहीं हैं। यूपीएस में फुल पेंशन के लिए 25 साल की सीमा तय है इसलिए अर्द्धसैनिक बलों समेत 25 साल की सेवा के पूर्व रिटायर हो जाने वाले अनेक कर्मचारी इस फायदे से बाहर हो गए हैं। सेवा के दौरान मृत्यु पर आधा वेतन पेंशन के रूप में मिलने का प्रावधान भी अस्पष्ट है। कहने वाले तो यहां तक कह रहे हैं कि अगर यह नई पेंशन योजना इतनी ही प्रभावी और हितकारी है तो इसे सांसदों और विधायकों के लिए लागू क्यों नहीं किया जा रहा।
देश के अन्य करोड़ों सेवानिवृत्त लोगों पर लागू कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (ईपीएफओ) से जुड़े रिटायर्ड लोगों की न्यूनतम पेंशन 7500 रुपए किए जाने की मांग अलग लंबित है। इसकी वर्तमान न्यूनतम राशि इतनी कम है कि खुद सरकारी मापदंडों के आधार पर दो जून की रोटी का इंतजाम असंभव है। संबंधित सेवानिवृत्त कर्मचारियों द्वारा पेंशन राशि में वृद्धि समेत उनके और जीवनसाथी के लिए पूर्ण चिकित्सा सुविधा दिए जाने की मांग भी रखी गई है। विरोध प्रदर्शन कर रहे पेंशनभोगी पिछले आठ वर्षों से प्रतीक्षारत हैं लेकिन कोई सुनवाई नहीं हो रही।
पेंशन को प्रभावित करने वाला एक अन्य महत्वपूर्ण घटक वेतन पुनरीक्षण भी है। आमतौर पर सरकारी कर्मचारियों के वेतन में संशोधन के लिए केंद्र सरकार की ओर से हर 10 साल में वेतन आयोग का गठन किया जाता है। पिछले आयोग की सिफारिशें 1 जनवरी 2016 से लागू हुई थीं अतः नया वेतन पुनरीक्षण 1 जनवरी 2026 से देय है। सातवें वेतन आयोग के गठन और वास्तविक वेतन पुनरीक्षण में दो साल के लगभग समय लगा था। केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री पंकज चौधरी द्वारा केंद्र सरकार की ओर से राज्यसभा को दी गई जानकारी के अनुसार 8वें केंद्रीय वेतन आयोग के गठन के लिए उसे 2 आवेदन प्राप्त हुए हैं, लेकिन वर्तमान में आयोग के गठन का कोई प्रस्ताव विचाराधीन नहीं है। सांसदों विधायकों के लाभों संबंधी निर्णय प्राथमिकता के आधार पर लेने वाली सरकार कर्मचारियों के वेतन पुनरीक्षण पर कतई गंभीर नहीं दिखाई देती।
दो साल पहले आई सैंपल रजिस्ट्रेशन सर्वे रिपोर्ट के अनुसार आजादी के बाद लोगों की औसत आय दुगनी होकर 70 वर्ष हो जाने से बुजुर्गो की संख्या निरंतर बढ़ रही है। वहीं बच्चों द्वारा बुजुर्ग माता पिता की देखभाल का सामाजिक ताना बाना ऐसा छिन्न-भिन्न हो रहा है कि सरकार को बुजुर्ग माता पिता की देखभाल पर विवश करने के लिए कानून बनाने पड़ रहे हैं। बेलगाम महंगाई, निरंतर बढ़ता चिकित्सा खर्च और सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं में निरंतर हो रही कमी बुजुर्गो की दुश्वारियां बढ़ा रहा है। सरकार का आलम यह है कि सहानुभूति तो छोड़िए, स्वास्थ्य बीमा की प्रीमियम राशि पर 18 प्रतिशत की दर से जीएसटी लगाए बैठी है। कुल मिलाकर लगता है कि देश में बूढ़ा होना अपराध बनता जा रहा है। बुजुर्गों के पास चुपचाप सरकार की तरफ उम्मीद भरी नजरों से देखने के अलावा सिवाय और कोई चारा नहीं है।