धर्म का फल ऐसे मिलता है मुनि श्री पद्म सागर जी लॉर्डगंज

भगवान् महावीर जो इतने पुरुषार्थी थे उनको भी १२ साल लग गये। उनका भी मन एक मिनट अन्दर रहता तो दो मिनट बाहर जाता। तब हम तो इतने कमजोर हैं, हमको तो बहुत मेहनत करनी पड़ेगी

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मैं ध्यान भी कर रहा हूँ, जाप भी कर रहा हूँ। फिर भी यह मन बाहर क्यों जा रहा है, मन को बाहर जाने से भी मैं रोक रहा हूँ। मन तो बहुत चंचल है। कितना चंचल है ? इस बारे में पूछने पर बताया है कि पहले तो बन्दर को देखो, फिर समझो कि वह पागल हो गया, फिर उसके एक पांव में बिच्छू काट खाया, फिर उसके पूँछ में आग लग गई। आप विचार करो कि पहले तो बन्दर स्वयं कितना चंचल, फिर पागल होने, बिच्छू को काटने व पूँछ में आग लगने पर वह कितना चंचल होगा! उससे भी कई गुना ज्यादा यह मन चंचल है। फिर अगर यह बाहर जाता है तो पुरुषार्थ करो रोकने का। भगवान् महावीर जो इतने पुरुषार्थी थे उनको भी १२ साल लग गये। उनका भी मन एक मिनट अन्दर रहता तो दो मिनट बाहर जाता। तब हम तो इतने कमजोर हैं, हमको तो बहुत मेहनत करनी पड़ेगी। हमको उदास होकर नहीं बैठना है, फिर पुरुषार्थ करना है। संयम को धारण करना है।
महाराज श्री ने बताया
व्रत व समितियों का पालन, मन-वचन-काय की प्रवृत्ति का त्याग, इन्द्रियजय यह सब जिसको होते हैं, उसको नियम से संयम धर्म होता है।

‘अनाश्रिता लता स्वयमेव लीयते’ आश्रयहीन बेल अपने जीवन की अन्तिम बेला आने से पूर्व स्वयमेव ही समाप्त हो जाती है। वह स्वयं अपनी शक्ति के द्वारा जमीन से रस खींचकर अपना विकास करती है। इसके उपरान्त भी वह बहुत जल्दी समाप्त हो जाती है, क्योंकि वह अनाश्रित होती है। किन्तु बाग का होशियार माली जब उस बेल के फैलते ही उसे लकड़ी का सहारा देकर हल्के से बाँध देता है तब वह ऊध्र्वगामी होकर बहुत ऊँचाई पर पहुँच जाती है। हल्का सा वह बाँधा गया, बंधन उसे उन्नति में बाधक नहीं बनता अपितु ऊँचे बढ़ने में साधक ही बनता है

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