वैदिक परम्परा में भक्ति पारसमणि से भी ज्यादा अनमोल है मुनि विरंजन सागर

वैदिक संस्कृति में भावों का महत्व होता है जिसके भाव जितने निर्मल होते है

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वैदिक परम्परा में भक्ति पारसमणि से भी ज्यादा अनमोल है मुनि विरंजन सागर

जबलपुर । नन्हे जैन मंदिर एवं बरियावाल मंदिर ट्रस्ट चातुर्मास कमेटी के तत्वाधान में मुनिराज ने आज अपने प्रवचन में कहा कि श्रावकजनों आप अगर ईश्वर को पाना चाहते है तो आप उनकों अपने भावों से अर्घ समर्पित कर उनकी स्तुति करें। यह वह माध्यम होता है, जिससे आप ईश्वर को बड़ी ही सहजता से प्राप्त कर सकते है।

मुनिराज कहते है कि वैदिक संस्कृति में भावों का महत्व होता है जिसके भाव जितने निर्मल होते है वह ही परमात्मा के अलौकिक दर्शन को प्राप्त कर पाता है। जिसके भाव परमात्मा में लीन हो जाए उसे कोई भी नशे की जरूरत नहीं पड़ती। मुनिराज कहते है कि जो भी परमात्मा की भक्ति के रस में डूबा वह इस संसार से तर गया। आज हम सनातनी संस्कृति को मानने वाले इसे दो रूप में जानते है। जैन शास्त्रों के अनुसार हम भावों की महिमा कहते है दूसरी भाषा में हम इसे भक्ति भाव भी कहते है। मुनिराज कहते है कि राम की भक्ति का रस हनुमान से पूछों । कृष्ण की भक्ति का रस मीरा से जाने और नारायण की भक्ति का रस प्रहलाद से जाने। आप अगर परमात्मा की भक्ति को निर्मल भाव से करते है तो आप किसी वरदान की जरूरत नहीं होती क्योंकि आपके मन में इतनी निर्मलता आ जाती है कि आप तो बस यह चाहते है कि मैं इसी रस में डूबा रहूं।

मुनिराज ने श्रावकों को बताया कि भक्ति रस वह रस होता है जिसमे मनुष्य अपने आराध्य से भक्ति के माध्य से मिलता है बात करता है और उसी में रम जाता है। इस दौरान वह इतना रम जाता है कि उसकी आँखें खुशी से नम हो जाती है।

मुनिराज श्रावकों से कहते है कि अभी अनिष्टकाल चल रहा है इसमें श्रावकों को वह विद्याएँ सिद्ध नहीं होती जो पहले हुआ करती थी किन्तु परमात्मा बहुत दयालु होता है वह इस काल में भक्तों को भक्ति रस के माध्यम से मनुष्य को भगवान से जुडने का मौका देता है इसलिए आप भी निरंतर अपने प्रत्यनों से भगवान की भक्ति कर उनसे जुडने का प्रयास करें ताकि आपका यह मनुष्य जन्म सफल हो सके और आप कलि काल के दुखों से बचे रहे।

मुनिराज ने समाज के सभी वर्गो के आहवाहन किया है कि जैसे पहले हमारे घरों में एक व्यक्ति सभी को वेद पुराण एवं शास्त्रों को सुनाता था हमें पुनः वैसी परम्परा को लागू करना चाहिए जिससे हमारे बच्चों में संस्कारों का बीजारोपण हो सके हमें चाहिए कि हम सनातनी परम्परा को पुनः स्थापित कर अपने बच्चों को संस्कारित करें ।

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