भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टालरेंस

कुल मिलाकर भृष्टाचार के खिलाफ जीरो टालरेंस की सरकारी नीति पर प्रश्न चिन्ह उठते है

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पिछले दिनों लोकायुक्त ने रीवा की एक महिला पटवारी को ढाई हजार की घूस लेते रंगे हाथ पकड़ा। अब आप कहेंगे इस खबर में अनोखा क्या है ? जब तब छपती रहती हैं। अनोखा यह है कि यही मैडम लोकायुक्त द्वारा 2016 में भी 9 हजार की घूस लेते हुए रंगे हाथ पकड़ी गई थी। लोकायुक्त की सूचना पर राजस्व विभाग ने कार्यवाही के नाम पर उसे 45 किमी दूर तेंदुल ट्रांसफर कर दिया जहां वह घूस लेते पुनः पकड़ी गई। 2016 की घटना की जांच पूरी कर लोकायुक्त द्वारा 2022 में राजस्व विभाग से अभियोजन चलाने मांगी गई मंजूरी 2 साल से राजस्व विभाग में धूल खा ही रही थी कि मैडम ने नया कारनामा अंजाम दे दिया। स्पष्ट है, लोकायुक्त जांच प्रक्रिया और अभियोजन स्वीकृति हेतु भेजने में विलंब और स्वीकृति मिलने में होने वाली सरकारी देरी सरकारी कारिंदों के मन से कार्यवाही का डर खत्म कर रही है। सरकारी कारिंदों द्वारा माल ऊपर तक पहुंचा कर उसके ऐवज में कार्यवाही के खिलाफ ताबीज़ हासिल किए जाने संबंधी आम धारणा भी मजबूत होती है। कुल मिलाकर भृष्टाचार के खिलाफ जीरो टालरेंस की सरकारी नीति पर प्रश्न चिन्ह उठते है
भ्रष्टाचार मिटाने के लिए ही बनी लोकायुक्त और ईओडब्ल्यू जैसी संस्थाओं को पहले कार्यवाही के लिए सरकारी अनुमति की जरूरत नहीं थी। यह व्यवस्था अचानक बदलकर कार्यवाही के लिए सरकारी मंजूरी अनिवार्य कर दी गई। आलम यह है कि रंगे हाथों पकड़े गए प्रकरण भी मंजूरी की प्रतीक्षा में धूल खाते रहते हैं जिसका फायदा उठाकर बेख़ौफ़ भ्रष्टाचारी फिर अवैध वसूली में जुट जाते हैं। यह बेख़ौफ़ी इतनी विकराल हो गई है हाल ही में राजस्व विभाग के तहसीलदार स्तर के कारिंदे के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के प्रकरण में एफआईआर दर्ज होने पर अन्य कर्मचारियों द्वारा संगठित रूप से कार्यवाही रोकने का दबाव बनाने की कोशिश की गई।

2023 में जारी लोकायुक्त की सालाना रिपोर्ट बताती है कि भ्रष्टाचार के मामले बढ़ रहे हैं । 2021 में 252 भ्रष्टाचारी रिश्वत लेते पकड़े गए थे। 2022 में यह संख्या 12 फ़ीसदी बढ़कर 279 हो गई। इस सर्वव्यापी बीमारी में पटवारी, क्लर्क, नायब तहसीलदार,रेंजर जैसे निचले स्तरों के साथ साथ डॉक्टर, डायरेक्टर ,इंजीनियर, सीईओ, एसडीओ, जैसे अफसर स्तर तक के सरकारी कारिंदे शामिल हैं। आंकड़ो पर नज़र डालें तो 2022 में ही इजाजत नहीं मिलने की वजह से नगरीय आवास और विकास विभाग , सामान्य प्रशासन विभाग और पंचायत एवं ग्रामीण राजस्व विभाग और स्वाथ्य विभाग के लगभग 130 से अधिक मामले लंबित थे। 15 केस तो 10 साल से लंबित थे।

अनुमति संबंधी मामले पर हाईकोर्ट में भी विचार हो चुका है। लोकायुक्त ने एक लोक सेवक के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति जमा करने का आरोप लगाकर मामला अभियोजन स्वीकृति के लिए सरकार को भेजा। मंजूरी न मिलने पर लोकायुक्त ने यह कहकर कोर्ट का रुख किया कि आरोपी के खिलाफ पर्याप्त सबूत थे और मंजूरी न देकर सरकार ने गलती की है। सरकारी तर्क था कि लोकायुक्त मंजूरी के लिए परमादेश की मांग नहीं कर सकता। अदालत ने माना कि लोकायुक्त की भूमिका सरकार को रिपोर्ट भेजने के साथ समाप्त हो जाती है। सरकार का कर्तव्य है कि वह मूल्यांकन कर मंजूरी के बारे में निर्णय करे। स्वीकृति प्रदान करने का प्रश्न यह सुनिश्चित करने का इरादा है कि कोई तुच्छ मुकदमा नहीं चलाया जा रहा। स्वीकृति पूर्णतः सरकार के विवेक पर निर्भर है और उसके निर्णय को चुनौती नहीं दी जा सकती। इस व्याख्या के बावजूद रिश्वतखोरी करते हुए रंगे हाथों पकड़े जाने पर भी अभियोजन मंजूरी न दिए जाने के निर्णय पर नैतिक सवाल तो उठते हैं।

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